महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के मायने

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके है। मीडिया के एक हिस्से ने भले ही यह घोषणा कर दी थी की दोनों प्रदेशों में भाजपा को विशाल बहुमत से जीत मिलने वाली है परंतु उनकी यह घोषणा सच साबित नहीं हुई। न केवल विधानसभा में भाजपा सदस्यों की संख्या दोनों राज्यों में कम हुई है बल्कि मत प्रतिशत में भी कमी आई है। हरियाणा में भाजपा के विधायक 47 से  घटकर 40 रह गए मत प्रतिशत में भी लगभग 20 प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में भी पिछली बार भाजपा के 122 विधायक थे जो इस बार घटकर 105 रह गए। भाजपा के सहयोगी दल शिवसेना के भी 63 से घटकर 56 विधायक रह गए और भाजपा का मत प्रतिशत 5.5 प्रतिशत तथा शिवसेना के मत प्रतिशत में 3.3 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि मत प्रतिशत तो कांग्रेस और एन.सी.पी. का भी कम हुआ। कांग्रेस को 2014 में 18.1 प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार घटकर 15.8 प्रतिशत रह गये, यद्यपि कांग्रेस के विधायकों की संख्या 2 से बढ़ कर 44 हो गई। एन.सी.पी. के मत प्रतिशत 1.3 प्रतिशत से कम होने के साथ ही 13 विधायकों की संख्या में बढोतरी हुई है, और उनकी संख्या बढ़कर 54 हो गई। 
 कुल मिलाकर इन दोनों विधानसभा चुनावों के परिणाम यह संकेत तो दे ही रहे है कि महाराष्ट्र में मतदाताओं का सभी दलों से मोह भंग हुआ है। हरियाणा में अवश्य कांग्रेस पार्टी के मत प्रतिशत में 8.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और पिछली बार की तुलना में 16 सीटें बढ़कर मिली है। जननायक जनता पार्टी जो पहली बार चुनाव लड़ी थी उसको 14.2 प्रतिशत वोट और 10 सीटें मिली है। जबकि उनके दादा श्री ओम प्रकाश चौटाला के नाम से चलने वाले दल इंडियन नेशनल लोकदल का मात्र एक विधायक जीता है तथा उनका मत प्रतिशत 21.7 प्रतिशत कम हुआ है। बहुत संभावना यह है कि कुछ समय के बाद इंडियन नेशनल लोकदल, जे.जे.पी. में घोषित या अघोषित रूप से समाहित हो जाएगी, क्योंकि इन दिनों पार्टियों के मतदाता एक ही वृक्ष के है। 
 यद्यपि महाराष्ट्र में शिवसेना व भाजपा दोनों मिलकर चुनाव लड़ी थी परंतु हरियाणा में तो जे.जे.पी. और भाजपा एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड़ी थी। जे.जे.पी. के नेता श्री दुष्यंत चौटाला तो भाजपा के खिलाफ ही लड़े थे और उनका राजनैतिक हमला भी मुख्य तौर पर इण्डियन नेशनल लोकदल और भाजपा के खिलाफ था। पिछले चुनाव में  जे.जे.पी. और आप पार्टी दोनों मिलकर चुनाव लड़े थे परंतु इस बार दोनों अलग-अलग थे, शायद जे.जे.पी. के दुष्यंत चौटाला का यह निर्णय ठीक ही साबित हुआ। श्री दुष्यंत चौटाला ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई है और वे मुख्यमंत्री श्री खट्टर के साथ उप मुख्यमंत्री बने है। हालांकि उन्होंने अपने एक बयान में यह कहा था (जो 29 सितंबर के जनसत्ता में छपा था) कि हरियाणा की जनता खट्टर सरकार के घमंड को भुला नहीं सकती है और एक अर्थ में यह सही भी सिद्ध हुआ। क्योंकि भाजपा को कुल मतदान का 36 प्रतिशत वोट मिला है यानि जिन मतदाताओं ने मत डाला उसमें से 64 प्रतिशत से भी अधिक मतदाताओं ने श्री खट्टर सरकार के विरूद्ध वोट दिया है। भारतीय राजनीति अवसर वादिता के जिस दौर में है उसमें राजनेताओं की बोली भी स्थिर नहीं रहती, वह अपनी निजी जरूरतों के हिसाब से बोलते है और उस पर व्यवहारिक चाँदी की पर्त चढ़ा देते है। अब श्री दुष्यंत चौटाला और श्री खट्टर आज या भविष्य में एक दूसरे के बारे में जो कहेंगे वह सितंबर 2019 के बयानों से बिल्कुल भिन्न होगा। सांप और नेवले की यह दोस्ती कितने दिन चलेगी कहना कठिन है। लेकिन जाति आधारित मतदाताओं को अपने जातीय नेताओं की इस अवसरवादिता से कोई शिकायत नहीं होती। दरअसल भारतीय राजनीति में जातीय नेताओं को गढ़ने में जातिओं की ही अहम भूमिका है यह एक प्रकार से समाज दोष भी है।  
 मुझे लगता है कि श्री भूपेन्द्र हुड्डा और चौटाला परिवार की व्यक्तिगत प्रतिद्वंदता ने भी श्री दुष्यंत चौटाला को भाजपा के साथ जाने के लिए लाचार किया होगा। क्योंकि अगर श्री भूपेन्द्र हुड्डा, दुष्यंत चौटाला को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देते तो उनका समर्थक जाट वोट उनके साथ जा सकता था। यही स्थिति श्री चौटाला के साथ भी थी कि अगर वे श्री हुड्डा को समर्थन देते तो उनका आधार जाट वोट खिसक सकता था। इस रूप में उन्होंने यह चतुराई भरा निर्णय लिया जिससे अपने जनाधार को बचाया जा सके तथा श्री हुड्डा के जन आधार में भी सेंध लगाई जा सके। 
 परंतु महाराष्ट्र में इसके उलट स्थिति है वहां बावजूद इसके की भाजपा और शिवसेना मिलकर चुनाव लड़े थे और इस आधार पर महाराष्ट्र में पहले सरकार बन जाना चाहिए थी परंतु सत्ता प्रतिद्वंदता और पदलोलुपता इतनी अधिक है कि वहां न केवल अभी तक सरकार नहीं बन सकी बल्कि सरे आम बयानबाजी भी खूब चलती रही है। और अंतत: राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है। शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए भी लड़ रही थी। कांग्रेस और एन.सी.पी. इस खेल को समझ रहे थे। और उन्होंने, शिवसेना को त्रिशंकु बना दिया परिणामस्वरूप अभी फिलहाल शिवसेना न केन्द्र सरकार में रही और न सूबे का मुख्यमंत्री पद मिला किसी ने भी शिवसेना की तरफ हाथ बढ़ाकर शिवसेना की सौदेबाजी को बल नहीं दिया है। शिवसेना ने भाजपा से अलग होने का निर्णय कर एक जोखिम का निर्णय लिया है। इससे शिवसेना का हिन्दू समर्थक वोट खिसक भी सकता है। 
 25 अक्टूबर को रिजल्ट आते ही प्रधानमंत्री ने यह बयान देकर कि महाराष्ट्र में श्री देवेन्द्र फडणवीस और हरियाणा में श्री खट्टर 5 वर्ष तक अच्छी सरकार चलाएंगें, इशारों में ही राज्यपालों को खुला संकेत दे दिया था कि इन लोगों को ही मुख्यमंत्री बनाना है। मेरी राय में प्रधानमंत्री का बयान अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक और तानाशाही भरा बयान था वरना वे अपने चुनावी प्रदर्शन की कमी को स्वीकार करते हुए कहते की यद्यपि भाजपा का प्रदर्शन अनुमान के अनुसार नहीं रहा है, फिर भी भाजपा बड़ा राजनैतिक दल होने के नाते सरकार बनाने की पहल करेगी।  
 शायद उन्होंने यह बयान इस वजह से भी दिया है, कि महाराष्ट्र और हरियाणा की अधूरी सफलता के लिए वे भी जवाबदार है। इन दोनों राज्यों में न केवल उनकी पसंद के मुख्यमंत्री थे बल्कि चुनाव अभियान भी प्रधानमंत्री के नाम पर और धारा 370 हटाने जैसे केन्द्रीय मुद्दों पर लड़ा गया था, चुनाव परिणाम इस अर्थ में उनके भी खिलाफ गए है। 
 महाराष्ट्र में भाजपा के जितने सदस्य बताए गए थे उनसे सात लाख कम वोट भाजपा को मिले है। भाजपा की सदस्यता कितनी सही है यह इससे सिद्ध हो जाता है। इस अवसरवाद की राजनीति का अंत कहां होगा, कब होगा, कहना कठिन है, परन्तु इतना तो मुकम्मल तौर पर कहा जा सकता है, कि भाजपा के मतदाताओं से दो गुने मतदाता इस विकल्पहीनता, अवसरवादिता के दौर में भी भाजपा और श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ है। इस सूत्र को कैसे जमीन पर उतारा जाए, यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है। कांग्रेस भले ही कुछ राज्यों में बड़ी पार्टी हो परंतु उसे भी इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि वह अपने आप में अकेले विकल्प नहीं है और गैर-भाजपाई दलों में भी उसकी साख ईमानदार मित्र की नहीं बची है उत्तरप्रदेश और बिहार जहां से 120 सांसद आते है वहां आज भी वह चौथे नं. की पार्टी है और किसी न किसी बैसाखी के बगैर नैया पार नहीं कर सकती। महाराष्ट्र में भी उसकी संख्या के पीछे मुख्य आधार एन.सी.पी. याने शरद पंवार और मराठा मतदाताओं का है। तमिलनाडु में वह डी.एम.के. के भरोसे हैं, और केरल तथा बंगाल में वह अपने ही सहयोगियों को खाकर अपना पेट भरने के प्रयास में है। इसका हल कांग्रेस को ही खोजना होगा।